सुप्रभात!
1 जुलाई 1975 को मैंने जब 6ठी कक्षा में धरियावद के उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लिया था तब सर्वप्रथम मैंने वहां बरामदे की दीवार पर लिखा ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह कथन पढ़ा था- थोड़ा पढ़ना, अधिक सोचना; कम बोलना, अधिक सुनना यह बुद्धिमान बनने के उपाय हैं।
जैसे-जैसे बड़ा होता गया और लोक व्यवहार से वास्ता पड़ने लगा, उक्त कथन का गूढार्थ धीरे-धीरे समझ में आने लगा। मेरा वास्ता ऐसे लोगों से ज्यादा पड़ा जो इसके विपरीत आचरण करते थे। ऐसे लोगों में कई शिक्षक और बड़े अधिकारी-नेता-व्यवसायी सभी शामिल हैं।
मेरे दादाजी पं. देवरामजी शर्मा अक्सर कहा करते थे- “के तो तोली ने बोलो नी तो बोली ने झेलो” अर्थात या तो सोच समझ कर बोलो या फिर जो बोला उसके परिणाम भोगने को तैयार रहो।
हम सभी इस तथ्य से सुपरिचित हैं कि थोथा चना बजे घना। मूर्ख लोग प्रायः अधिक बोलकर अपनी मूर्खता का परिचय दे ही देते हैं, जबकि बुद्धिमान व्यक्ति सदैव सोच समझ कर नपी-तुली भाषा में बात करते हैं। बुद्धिमान लोग तब तक मुँह नही खोलते जब तक उनसे कहा नहीं जाए या फिर उनके चुप रहने का गलत अर्थ लगा लिया जाए! इसके विपरीत तथाकथित ज्ञानी (मूर्ख) लोग बोलने का कोई मौका नहीं चूकते और क्या बोलना है यह भी नही सोचते। कुछ लोग तो और भी महान होते हैं- उन्हें लगता है कि विश्व में उनका अवतार ही इसलिए हुआ है कि लोग उनको/उनकी सुनें और तारीफ भी करें। यदि कभी कोई उन्हें सुनना पसंद न करे तो वे गांठ बांध लेते हैं और प्रतिशोध लेने की हद तक पहुंच जाते हैं। ऐसे लोगों को अपनी आवाज देववाणी प्रतीत होती है और अपने शब्द वेद वाक्यों से लगते हैं। आत्म-मुग्धता की पराकष्ठा है यह!!
सोच कर बोलें न कि बोल कर सोचें कि मैं क्या बोल गया!!
ईश्वर हम सभी को सद्विवेक और सहजबुद्धि प्रदान करें।