
वह वैशाख पूर्णिमा ही थी जिस दिन भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण का वरण किया था।
रात समाप्त होने वाली थी। भगवान ने आंखें खोली, अपने अनुयायियों की ओर देखा और उनके श्री मुख से सभी भावी साधकों के लिए अनमोल विरासत के रूप में उद्बोधन के ये अंतिम बोल मुखरित हो उठे-
वयधम्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेथ।
अर्थात – “सारे संस्कार व्यर्थ-धर्मा हैं। जो कुछ संस्कृत अर्थात निर्मित होता है, वह नष्ट होता ही है। साधना द्वारा प्रमाद-रहित रह कर अपने भीतर इस सच्चाई को स्वानुभूति पर उतारो।”
इस उद्बोधन के तुरंत बाद तथागत ने चंद ही क्षणों में एक के बाद एक, पहले से नौवें ध्यान की समापत्ति का साक्षात्कार किया और इन्द्रियातीत निर्वाणिक अवस्था में स्थित हुए।
इस अवस्था में श्वास की गति सर्वथा निरुद्ध हुई तो समीप बैठे लोगों को भ्रम हुआ कि भगवान ने महापरिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है। किंतु महाज्ञानी महास्थिवर अनिरुद्ध ने अपने सिद्धिबल से जाना कि यह शरीर-च्युति की अवस्था नहीं है – भगवान की देह अभी सक्रिय है।
कुछ ही पलों के बाद पुनः नौवें ध्यान की इन्द्रियातीत निर्वाणिक अवस्था से निकल कर , भगवान ने एक बार फिर पहले से चौथे ध्यान-समापत्ति की यात्रा पूर्ण की और उसी अवस्था में महापरिनिर्वाण का वरण किया।
इस प्रकार, वैशाख पूर्णिमा की रात्रि के समापन के साथ ही बुद्ध का यह अंतिम जीवन पूर्ण हुआ और वह अनगिनत जन्मों के परिभ्रमण की दुखदायी यात्रा के अंतिम पड़ाव अर्थात मोक्ष (निर्वाण) को प्राप्त हुए।
भौतिक शरीर जीवन-शून्य हुआ किंतु समस्त विश्व के कल्याण के लिए उनके द्वारा उपदेशित धर्म आज भी जीवन्त है।
ऐसी महान आत्मा को शत-शत वंदन है🙏🙏
आप सभी को बुद्ध पूर्णिमा की अनेक शुभकामनाएं