
किसी शायर ने क्या खूब कहा है :
सुबह होती है शाम होती है ।
योंही उम्र तमाम होती है ।।
विचारकर देखने से बड़ा विस्मय होता है कि दिन और रात कैसे तेजी से चले जाते हैं । जिनको कोई काम नहीं है अथवा दुखिया हैं, उन्हें तो ये बड़े भारी मालूम होते हैं, काटे नहीं कटते, एक एक क्षण, एक एक वर्ष की तरह बीतता है; पर जो कारोबार या नौकरी में लगे हुए हैं, उनका समय हवा से भी अधिक तेजी से उड़ा चला जा रहा है, यानी कारोबार या धंधे में लगे रहने के कारण उन्हें मालूम नहीं होता । वे अपने कामों में उलझे रहते हैं और मृत्युकाल तेजी से नजदीक आता जाता है ।
जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने ‘मोहमुद्गर’ में कहा है :
दिन यामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायु तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।
दिन-रात, सवेरे-सांझ, शीत और वसंत आते और जाते हैं, काल क्रीड़ा करता है, जीवनकाल चला जाता है, तो भी संसार आशा को नहीं छोड़ता ।
शिक्षा: मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य देह को योंही नष्ट न करो । देखो ! सर पर काल नाच रहा है: एक सांस का भी भरोसा न करो । जो सांस बाहर निकल गया है, वह वापस आवे या न आवे इसलिए गफलत और बेहोशी छोड़कर, अपनी काया को क्षणभंगुर समझकर, दूसरो की भलाई करो और अपने सिरजनहार में मन लगाओ; क्योंकि नाता उसी का सच्चा है; और सब नाते झूठे हैं ।
किसी संत ने तो ये भी कहा है –
माया सगी न मन सगा, सगा न यह संसार।
परशुराम या जीव को, सगा सो सिरजनहार।।
मैं यह नहीं कह रहा कि संसार छोड़ कर विरक्त हो जाएं। मेरा केवल यह कहना है कि सांसारिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुये आत्मकल्याण के लक्ष्य को कभी न भूलें और उस दिशा में भी निरंतर कदम उठाते रहें।
केवल भागें नहीं, जागें भी!!
ईश्वर हम सभी को सद्बुद्धि,साहस और शक्ति प्रदान करें💐💐